ये कैसा चुनाव है। चुनाव तो लोकतंत्र का उत्सव होते हैं जिसमें राग-रंग, नोक-झोंक, चुटीले नारे, झंडे-पो" />
Thursday, April 25, 2024
Advertisement
  1. You Are At:
  2. News
  3. Articles
  4. Hemant Sharma
  5. Loktantra ke utsav me ye kesha sannata

लोकतंत्र के उत्सव में ये कैसा सन्नाटा!

Hemant Sharma

ये कैसा चुनाव है। चुनाव तो लोकतंत्र का उत्सव होते हैं जिसमें राग-रंग, नोक-झोंक, चुटीले नारे, झंडे-पोस्टर और उम्मीदवारों का परिचय कराते बैनर नजर आने चाहिए। लेकिन आज कहां हैं ये सब? पिछले दिनों जब मैं नोएडा में वोट डालने गया तो लगा जैसे हम किसी श्मशान में जा रहे हैं। चारों ओर एक अंतहीन चुप्पी। डरावनी शांति। इस शांति को तोड़ती पुलिसिया बूटों की आवाज। मतदान केंद्रों के बाहर पार्टी  कार्यकर्ता पर्चियां बनाने के लिए अपनी मेजें लगाते हैं, वो मेजें भी सूनी पड़ी थीं। उन्हें भी झंडे टांगने की इजाजत नहीं। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में हमें कहां ले गया है चुनाव आयोग।

चुनाव हमारे यहां एक उत्सवी गीत हुआ करता था जिसे आयोग की बेहूदी पाबंदियों ने शोक गीत में बदल दिया है। अब तो दीवारों पर भी नारे लिखने की पाबंदी है। मैं किसी राजनीतिक शास्त्री के घर नहीं जन्मा। मेरी तो राजनीतिक समझ ही दीवार पर लिखी इन इबारतों को पढ़ कर बनी। दुख है कि आयोग ने चुनाव को बिल्कुल बेरंग और बेजान बना दिया है। चुनाव में कौन खड़ा है, आप जान ही नहीं सकते। यानी उम्मीदवार को जाने बिना पार्टी को वोट देना ही आपके पास इकलौता विकल्प है। बेचारे निर्दलियों का क्या होगा जिनकी पहचान ही पोस्टर-परचे होते थे। अब पूरी चुनाव प्रक्रिया पार्टी  केंद्रित बन गई है।

नारे हमारे लोकतंत्र का निर्णायक औजार हुआ करते हैं। राजनीतिक दल इन्हीं के जरिए एक-दूसरे पर वार करते थे। 1967 में जब मैंने पढ़ा-‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।’ तब लगा यह आरक्षण का डा.लोहिया सिद्धांत है। उसी दौरान देश भर में गौरक्षा आंदोलन हुआ। हिंदी इलाकों में राम राज्य परिषद उभरी। उसका नारा था- ‘गाय हमारी माता है, देश धरम से नाता है’। अब अगर यह नारा स्मृति में न हो तो पता ही नहीं चलेगा कि ऐसी भी पार्टी थी जिसने उस दौर में संसद की दजर्नों सीटें हासिल की थीं।

1974 आते-आते इंदिरा गांधी का रसूख खत्म हो रहा था। संजय गांधी ने मारुति कार का कारखाना खोला। तब देश बेकारी की गंभीर समस्या से जूझ रहा था। अटल बिहारी वाजपेयी ने नारा दिया था- ‘बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है’। जवाब में कांग्रेसियों ने दीवारें रंग दीं। कांग्रेसियों ने नारा दिया-‘उस दीये में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं’। तब दीया जनसंघ का चुनाव चिन्ह होता था। इसी दौर में हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। समाजवादियों का नारा था-‘नाम  बहुगुणा, भ्रष्टाचार सौ गुणा’।

नारे अपने समय के समाज की सार्थक अभिव्यक्ति होते हैं। नारों के ज़रिए उस वक्त के समाज और राजनीति को समझा जा सकता है। अगर इमरजंसी के बाद के दीवारों पर लिखे नारे इतिहास में न हों तो आप उस वक्त के हालात से रू-ब-रू कैसे हो सकते हैं? इमरजंसी में नसबंदी के नाम पर हुआ उत्पीड़न कौन नहीं जानता। उस वक्त रायबरेली से एक उपमंत्री हुआ करते थे रामदेव यादव। इमरजंसी हटते ही जब राज्य विधानसभा भंग हुई तो लोगों का गुस्सा कांग्रेस पर फूट पड़ा। रामदेव यादव चुनाव लड़ने रायबरेली की एक विधानसभा सीट पर पहुंचे। जनता ने दीवारों पर लिखा-‘जब कटत रहे कामदेव, तो कहां रहे तुम रामदेव’। अकेला यह नारा इमरजंसी के कारनामों की पोल खोलता है।

लखनऊ में आजाद भारत में पहली दफा म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव हो रहे थे। मेयर के लिए लखनऊ के नामी हकीम शम्सुद्दीन मैदान में थे। हकीम साहब की शोहरत लखनऊ की हदों को तोड़ती थी। कुछ स्थानीय मनचलों ने हकीम साहब के खिलाफ चौक की एक तवायफ दिलरुबा को लड़ा दिया। दिलरुबा के लिए भीड़ उमड़ने लगी। सड़कों पर मुजरा होने लगा। लखनऊ की तहजीब को पलीता लगते एकबारगी तो लगा कि हकीम साहब चुनाव हार न जाएं। संकट लखनऊ की मेधा पर था। चौक में बुद्धिजीवियों ने एक आपात बैठक की। उस बैठक में अमृतलाल नागर भी थे। बैठक से नारा निकला- ‘दिल दीजिए दिलरुबा को, वोट दीजिए शम्सुद्दीन को’। दूसरे रोज लखनऊ की दीवारों पर लिखी इस इबारत ने फिज़ा ही बदल दी। हकीम साहब चुनाव जीत गए।

राम जन्मभूमि आंदोलन में जब लोगों पर अयोध्या का बुखार चढ़ा था तो भगवाधारियों ने नारा दिया- बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का। उसी समय किसी प्रगतिशील ने बनारस में ही इसकी आखिरी लाइन बदल दी। नारा चल निकला- ‘बच्चा बच्चा राम का, क्या इंतजाम है शाम का?’ यानी दीवार पर लिखी हर वह पंक्ति उस वक्त की राजनीति और समाज का पूरा इतिहास होती है।

अब ऐसे नारों, पोस्टरों, बैनरों, लाउडस्पीकरों पर पाबंदी लगा कर आप क्या करना चाहते हैं? जो राजनीति किताब से नहीं सीखते, उनका क्या होगा कुरैशी साहब? इस रोक ने आम मतदाता के उस अधिकार को भी खत्म कर दिया है जिससे वह अपने उम्मीदवारों के बारे में जानता और समझता था। हो सकता है इससे चुनाव खर्च कम हुआ हो, पर प्रचार की जगह मतदाताओं में पैसा बांटने का नया चलन शुरू हो गया है। कृपया लोकतंत्र के लिए चुनाव के रंग को लौटा दीजिए।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement