Friday, April 26, 2024
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हाशिए पर आडवाणी

Himanshu Mishra

जनसंघ और जनता पार्टी के बाद 1980 में जिस भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का जन्म हुआ था, उसे आम आदमी अटल-आडवाणी की पार्टी के रूप में जानता था। समय बदलता गया, पार्टी का काम चलता रहा। एक समय ऐसा भी आया, जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जो दुर्गति हुई, वह नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए निराश करने वाली थी।

लेकिन न नेता निराश हुए और न ही कार्यकर्ता, क्योंकि यदि अटल बिहारी वाजेपयी और लालकृष्ण आडवाणी की मानें, तो कार्यकर्ता से लेकर नेता तक एक ही सुर में ‘फिर सुबह होगी’ गुनगुनाते थे। समय करवट बदलता गया और बीजेपी का कारवां बढ़ता ही चला गया।

1989 में बीजेपी ने जनता दल को समर्थन देकर वीपी सिंह की सरकार भले ही बनवाई हो, पर वह ज्यादा दिन नहीं चल पाई। लेकिन बीजेपी ने यह संदेश कांग्रेस को जरूर दिया कि गैर कांग्रेसी सरकार बनाना मुश्किल नहीं है। 1991 के लोकसभा चुनाव के समय यदि राजीव गांधी की हत्या न हुई होती तो शायद बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें मिलतीं।  लालकृष्ण आडवाणी तब प्रधानमंत्री भी बन जाते, क्योंकि वह समय आडवाणी का सर्वश्रेष्ठ समय था। यही वह समय था, जब बीजेपी और आडवाणी दोनों का कद बढ़ रहा था। एक समय था, जब अटल-आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी हर कदम पर सफलता अर्जित करती जा रही थी। लेकिन उससे पहले ही 1995 में पार्टी के सामने संकट की घड़ी आ गई, जब हवाला काण्ड में आडवाणी समेत पार्टी के कई नेताओं का नाम आ गया। संकट की इस घड़ी में आडवाणी ने ऐसा फैसला किया, जो हर किसी के लिए लेना संभव नहीं था। उन्होने संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और कहा कि वह संसद में तब तक नहीं जाएंगे, जब तक वह इस आरोप से मुक्त नहीं हो जाते। आडवाणी ने ऐसा किया भी, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना को न चाहते हुए भी मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इस बीच आडवाणी ने नहीं चाहते हुए भी 1996 के लोकसभा चुनाव से पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। उन्हें लगा था कि इससे उनका कद पार्टी और संघ परिवार में और बढ़ेगा और हुआ भी वैसा ही, बस अंतर इतना ही था कि इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और जन-जन के नेता भी बन गए और आडवाणी पार्टी के नेता बन गए।

1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और 23 राजनैतिक दलों के समर्थन से एनडीए की गठबंधन सरकार बन गई। लेकिन 13 महीनों में ही अन्नाद्रमुक की सुप्रीमो जयललिता के समर्थन वापस लेने के बाद वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गई। 1999 में पुनः मध्यावधि चुनाव हुए और वाजपेयी पर एक बार फिर जनता ने भरोसा जताया। अब तक आडवाणी अपनी ताकत इतनी बढ़ा चुके थे कि सरकार का कोई छोटा या बड़ा फैसला आडवाणी की सहमति के बिना नहीं होता था। आडवाणी सरकार में अपने आप को वाजपेयी के समकक्ष मानते थे। 2002 में गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना चाहिए, लेकिन आडवाणी ने वाजपेयी के इस फैसले के खिलाफ जा कर मोदी का इस्तीफा नहीं होने दिया। यह बताता है कि आडवाणी ने पिछले सालों में पार्टी के अंदर अपनी पकड़ कितनी मजबूत बना ली थी। तभी आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना एक बार फिर हिचकोले मारने लगा। उसी वक्त वाजपेयी के सवास्थ्य को लेकर भी खबरें आने लगीं । तब आडवाणी गुट ने संघ को विश्वास मे लेकर वाजपेयी को सन्देश पहुंचाया कि उन्हें राष्ट्रपति का चुनाव लडना चाहिए और संघ चाहता है कि आप देश के अगले राष्ट्रपति हों। तब वाजपेयी ने संघ और आडवाणी गुट के इस प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया था। लेकिन आडवाणी के दबाव के चलते संघ ने वाजपेयी को इस बात पर राजी कर लिया कि आडवाणी को सरकार में उपप्रधानमंत्री बनाया जाये। अब सरकार और बीजेपी में उपप्रधानमंत्री के तौर पर आडवाणी की स्थिति पहले से ज्यादा मजबूत हो गई।

2004 के आम चुनाव भले ही वाजपेयी के नाम पर लड़ा जा रहा था, लेकिन आडवाणी ने ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे को लेकर भारत उदय यात्रा निकाली और वाजपेयी सरकार के द्वारा किए गए सराहनीय कामों का श्रेय लेने की कोशिश की तो जनता ने उन्हें नकार दिया और उसका उल्टा परिणाम भी सामने आया। 2004 के आम चुनाव में जो नतीजे आए, वे हैरान करने वाले थे। सबसे ज्यादा हैरानी आडवाणी के लिए थी क्योंकि उनका सपना एक बार फिर साकार होने से रह गया। लेकिन वो हार मनाने को तैयार नहीं थे। इस बार उन्होने संघ को इस बात को लेकर राजी कर लिया कि बीजेपी की कमान एक बार फिर उनके हाथ में देनी चाहिए। इस पर  आरएसएस ने भी अपनी सहमति देने में देर नहीं की। बस यहीं से आडवाणी का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हो गया।

2005 में आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्यूलर कहा ही था कि बीजेपी और संघ में भूचाल आ गया । जो संघ कल तक आडवाणी को पलकों पर बैठाता था,  वही संघ आडवाणी की जान का दुश्मन बन गया। जिन लोगों को आडवाणी ने पार्टी में खड़ा किया था, अब वही उनसे सवाल कर रहे थे। पार्टी संसदीय दल की मीटिंग में उनसे इस्तीफा तक मांग लिया गया और वो इस्तीफा देने को तैयार भी हो गए थे। उनके गुट ने संघ से बात की। आडवाणी को कुछ समय और अध्यक्ष बने रहने दें, इसके लिए भी संघ तैयार हो गया। लेकिन दिसम्बर 2005 में आडवाणी की अध्यक्ष पद से जिस तरह से विदाई हुई, वो उनके गले नहीं उतरी थी। इस लिए उन्होने अपनी विदाई के समय चेन्नई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपने भाषण में कहा था, ‘अब समय आ गया है कि बीजेपी को अपने रिश्ते संघ से कैसे रखने चाहिए, इस पर पुनर्विचार करना चाहिए।’ ये आडवाणी की संघ को सीधी चुनौती थी। आरएसएस और आडवाणी के रिश्तों में सिर्फ खटास ही नहीं, बल्कि रिश्ते कड़वे हो चले थे। अब संघ के नेताओं की ऑखों में आडवाणी खटकने लगे थे। संघ चाहता था कि अब उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए। लेकिन आडवाणी तो कुछ और ही चाहते थे, उन्होंने एक बार फिर अपने गुट की फील्डिंग लगाई कि उनको अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए और एक बार फिर संघ ने न चाहते हुए भी हामी भर दी।

आडवाणी 2009 के आम चुनाव में बीजेपी के ही नहीं, एनडीए के भी ‘पीएम इन वेंटिग’ हो गए। 2009 के चुनाव में बीजोपी को 2004 से भी बडी हार का सामना करना पडा।  इस हार के बाद आडवाणी लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं बनाना चाहते थे। उनके इस फैसले से संघ भी खुश था, अपनी टीम के कहने पर वह फिर से नेता विपक्ष बनने को तैयार हो गए। लेकिन 18 दिसम्बर 2009 को उनको संघ के दबाव के बाद लोकसभा में नेता विपक्ष के पद से हटना पड़ा था। आडवाणी यहीं से और ज्यादा कमजोर हो गए।

झारखंड में बीजेपी और जेएमएम की गठबंधन सरकार बने, आडवाणी इसके खिलाफ थे। लेकिन पार्टी और नितिन गडकरी ने उनकी एक न सुनी। बस फिर हर कदम पर संघ ने गडकरी के जरिए आडवाणी को हशिए पर डालने की कोशिश की और संघ इसमें सफल भी हुआ। पिछले तीन सालों में ऐसे कई मौके आए, जब पार्टी में कई बड़े फैसले लिए गए और आडवाणी को भनक तक नहीं लगी। अब आडवाणी को लगने लगा था कि वो पार्टी में अलग-थलग पड़ गए हैं। आडवाणी चाहते थे कि येदियुरप्पा पर जब भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो येदियुरप्पा को कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से हटाया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसके के बाद येदियुरप्पा ने आडवाणी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया तो पार्टी ने इस पर ऑखें मूंद ली।

मुम्बई कार्यकारणी से पहले ही गडकरी को दूसरी बार बीजेपी का अध्यक्ष बनाया जाए, इसको लेकर संघ ने पूरी कवायद की। आडवाणी की नाराजगी के बावजूद संघ ने गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए बीजेपी के संविधान में बदलाव कराया। आडवाणी अब इतने कमजोर हो गए है कि संघ के दबाव में गडकरी को दूसरी बार अध्यक्ष बनाए जाने के लिए भी तैयार हो गए। जब बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर अपनी कम्पनी के जरिए हेराफेरी के आरोप लगे तो आडवाणी संघ के दबाव में इतने आ गए कि वह संघ के कहने पर न केवल गडकरी के साथ खडे़ हुए, बल्कि उनके समर्थन में एक बयान भी दे दिया।

आडवाणी की हालत ये है कि संघ दबाव डालकर उनसे भ्रष्टाचार पर किसी के सर्मथन में भी बयान दिलाता है। सच में अब वो आडवाणी कहीं खो गए हैं, जिन्होने हवाला केस में आरोप लगने मात्र से संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। अब लगता है, आडवाणी सिर्फ शो-पीस बनकर रह गए हैं। एक पुरानी कहावत है कि जैसे घर के बाहर चौखट पर बैठी बूढ़ी मौसी को हर कोई आता जाता नमस्कार तो करता है, लेकिन कहा नहीं मानता ; वैसे ही आडवाणी को पार्टी में व्यक्तिगत तौर पर सम्मान तो प्राप्त है, किंतु आधिकारिक तौर पर अब वह हाशिए पर डाल दिए गए हैं।

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